नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
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दोपहर की तेज धूप जैसे ही ढलने को हुई कि शक्तिनाथ बाहर के दलान पर आकर बैठ
जाते हैं। हाथ में रहता है डिब्बे में भरा चश्मा और महात्मा काली प्रसन्न
सिंह के महाभारत का कोई एक खण्ड।दो-तीन बार शुरू से अन्त तक पढ़ चुके हैं, अब विशेष-विशेष कांड, फिर से विशेष ध्यान देकर पढ़ते हैं।
शक्तिनाथ के पिता योगनाथ ने जब 'वसुमती साहित्य मंदिर' से अट्ठारह पर्व महाभारत का यह सम्पूर्ण 'सेट' खरीद कर बड़े जतन से अपने चंदन काठ की संदूक में सजा कर रखा था, तब शक्तिनाथ की उम्र अट्ठारह वर्ष की थी। खेल का नशा था, पड़ोस के लड़कों को लेकर व्यायाम-संघ बनाने का सपना था मन में, पिता के इस संग्रह की ओर उसने पलट कर भी नहीं देखा था।
योगनाथ ने कहा था, ''महाभारत पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। जिस उम्र में पढ़ोगे, कुछ-न-कुछ मजा आएगा, आज मत पढ़ो, दो दिन बाद पढ़ना, मगर पढ़ना अवश्य। महाभारत नहीं पढ़ने से भारत के मानव का जीवन असम्पूर्ण रह जाता है।''
कहने की आवश्यकता नहीं, अट्ठारह वर्ष के लड़के के अनिच्छुक कानों पर इस निर्देश ने मधुवर्षण नहीं किया था, परन्तु आदेश बनकर मन के किसी कोने में जड़ पकड़ कर बैठ गया था। लेकिन तब उस आदेश के पालन करने का समय कहीं था उनके पास? तब और बाद में भी?
जीविका-निर्वाह की चिन्ता में जीवन के सक्षम दिन तो भाग-दौड़ में निकल गये। रिटायर होने के बाद भी घर की मरम्मती कराने में काफी दिन निकल गये।
प्रॉवीडेंट फण्ड की मोटी रकम हाथ आ गई थी, उन्होंने सोचा-झटपट काम करा लें।
क्षेत्रबाला ने भी कहा था, ''गृहस्थ के हाथ आई रकम कमल के पत्ते पर ठहरा पानी है भैया, अभी है, अभी नहीं! अचानक आँख खोलकर देखोगे, पता नहीं कब लुढ़क गया।........घर की मरम्मत एक मोटी जिम्मेदारी है, पहले उसी से निपट लो!''
क्षेत्रबाला ही शक्तिनाथ की आजीवन की मंत्री हैं। अत: उन्हीं की सलाह के अनुसार दक्षिण के लम्बे खुले दलान को खिड़की-दरवाजे से घेर कर एक बरामदा बना लिया था शक्तिनाथ ने। रसोई घर की छत को पक्का कर दिया था और खटाल की छत को डबल पुआल देकर मजबूत कर दिया था। और यह बाहर का दलान जो टूट-फूट कर मिट्टी-गारे बिखरा रहा था उस पर लाल सीमेंट का फर्श बनवा लिया था। लाल फर्श के चारों ओर चौड़ी काली धारी, बीच में काले रंग का ही एक बड़ा कमल बनवाया था।
इसका बड़ा शौक था शक्तिनाथ को अपनी जवानी के दिनों से ही। हो नहीं सका था। केवल पैसे की कमी ही नहीं थी, कमी थी समय की भी। बीच-बीच में छोटा-मोटा जो काम करवाया भी गया, वह सब क्षेत्रबाला ने स्वयं मिस्त्री लगवा कर कराया, रकम भी छोटी-मोटी लगी। मोटी रकम और काफी समय हो तभी तो भारी और शौकीन काम हाथ में लिया जा सकता है। यह सब काम चुकता कर, आराम से बैठ कर बाबूजी का संदूक खोल कर आदेश-पालन करने में जुट गये शक्तिनाथ, अब तो नशा-सा हो गया है।
बीच के उस कमल की बेल से ही सटकर एक चौकी बिछी है। वहीं आकर शक्तिनाथ बैठते हैं, जैसे ही धूप ढलने को होती है। बहुत पहले ही बेचैन होने लगते हैं! कमरे में जी घबराता है परन्तु यह दलान पश्चिम की ओर है, इसीलिए जल्दी आकर बैठना सम्भव नहीं होता है।
घर का मुख्य ढाँचा शक्तिनाथ के दादाजी के जमाने का है। हिसाब लगाने से डेढ़ सौ वर्ष का होगा! मगर तब यह घर सिर्फ एक मंजिला था। उसके ऊपर दूसरी मंजिल बनवाई शक्तिनाथ के पिता ने, छोटा-बड़ा मिलाकर कुछ कमरे भी जोड़ दिये उन्होंने। जरूरत के हिसाब से कमरे बढ़ाते चले गये। सरकारी नौकरी थी उनकी, आराम की नौकरी। साहब लोगों की नेकनजर थी उन पर। वेतन जो भी हो, तंगी का सवाल नहीं था। लक्ष्मी की कृपा थी। खाने-पीने की कमी नहीं, घर-बार भी फैलता गया। पर ढाँचा कैसे बदलता? वही पुराना रह गया, जिस कारण शक्तिनाथ के बड़े भतीजे की बेटी मुँह बनाकर कहती है-पुराने जमाने का दृष्टिकोण कैसा था, जानते हो नानू? जैसे गाय-भैंस के लिए खटाल, वैसे ही आदमी के लिए घर। जरूरत के लिए बनता था।
हालाँकि घर के बारे में टिप्पणी शक्तिनाथ की माँ भी किया करती थीं, पर घर के सीधे-सपाट नक्शे के कारण नहीं, इसके पश्चिम-मुखी होने के कारण। उस जमाने में साधारणतया पश्चिम की ओर मुँह करके घर बनाये नहीं जाते थे, फिर भी यह बन गया। अपने ससुरजी की इस नासमझी पर क्षुब्ध होकर अक्सर ही वह कहती थीं, 'पता नहीं क्यों ससुरजी ने ऐसा ''पश्चिमी-दुआरी'' घर बसाया? कहावत ही है-दक्खिन दुआरी घर का राजा, पूरब-दुआरी उसकी परजा, उत्तर दुआरी खाक बनाऊँ, पश्चिम-दुआरी के पास न जाऊँ! वही ''पश्चिम-दुआरी'' नसीब के साथ जुड़ गया।'
परन्तु यह शक्तिनाथ की माँ के ससुरजी की नासमझी नहीं थी लाचारी थी। जहाँ जमीन, वहीं तो घर होगा? पुरखों की जायदाद के बँटवारे के बाद मिट्टी की दीवार वाले पैत्रिक मकान में से अपना हिस्सा छोड़ कर उसके बदले में जो जमीन मिली थी, उसके पूरब में तालाब, उत्तर की ओर बाँस के घने जंगल और दक्षिण की ओर रिश्तेदारों का घर था। खुला था तो यह पश्चिम, जिधर से हाट की ओर जाने का रास्ता निकलता था। अर्थात् इस मंडल विष्णुपुर गाँव का यही प्रमुख रास्ता था।
बाहर के दलान पर बैठे रहो हुक्का लेकर, दिन-भर कितना मनोरंजन हो जाएगा। आज की बात नहीं है यह, आज के जमाने में तो लोग मनोरंजन के मारे भी उकता गये हैं। समय भी किसके पास है कि दलान पर बैठकर हुक्का पीये?
अब तो वह सड़क चकाचक 'पीचरोड' बन गया है जिस पर भाग रहे हैं कितने रिक्शे, भाग रही हैं कितनी गाड़ियाँ।
तब तो केवल बैलगाड़ी हुआ करती थी। बड़े दूर से विचित्र 'कींच-कींच' ध्वनि निकालती हुई आती थी और जाने के बाद बड़ी देर तक वह ध्वनि जता जाती थी कि अभी गाड़ी सीमा के बाहर नहीं गई।
उसी 'कींच-कींच' के तान-लय से पता चल जाता था कि गाड़ी हरान की है या माखन दास की, बसीर शेख की है या त्रिभंग पाल की। सभी तो पैदल चलने वाले होते थे। हाट के दिन आने-जाने वालों के जाने-पहचाने मगर चित्ताकर्षक दृश्य को देखने के लिए शक्तिनाथ की माँ आकर दलान के पास दरवाजे से सटकर बैठती थीं। साथ में होता था घर का कोई बच्चा-बुतरू।
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